इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुनकर आप को भी गुस्सा आएगा।
झांसी के यौन अपराधी सोनू कुशवाहा के खिलाफ नाबालिग के साथ ओरल सेक्स से संबंधित झांसी के निचली अदालत ने 10 साल की सजा सुनाई। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उसकी सजा को कम कर दिया और ये भी बयान जारी किया कि बच्चों के साथ ओरल सेक्स 'एग्रेटेड पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट' यानि 'गंभीर यौन हमला' में नहीं आता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज ने POCSO एक्ट का हवाला भी दिया और बोला कि ये कृत्य अति गंभीर अपराध में नहीं आता है।
जरा सोचिए ये फैसला सुनकर उस नाबालिग के परिवार वालों का हमारे कानून से भरोसा उठेगा या वे लोग सत्यमेव जयते का माला जपेंगे। ऐसे में और भी लोगों का गुस्सा फूटा लेकिन ट्विटर और फेसबुक पर आलोचना करने के अलावा आम आदमी और क्या कर सकता है?
लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है अभी भी कुछ लोग व आयोग ऐसे हैं जो बुराई और बुरे लोगों का जमकर विरोध करते हैं।
राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने मुख्य सचिव को पत्र लिखकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के खिलाफ एक्शन लेने की अपील की है। और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज की जमकर आलोचना भी की है।
अब सवाल ये बनता है कि आखिर जज इतने गंभीर मामले में ऐसे बेतुके फैसले क्यों सुनाते हैं। ऐसे अपराधियों को संरक्षण देकर देश का कौन सा भला होने वाला है?
आपको पिछली घटना तो याद ही होगी जब मुंबई हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति यूयू ललित, न्यायमूर्ति रवींद्र भट और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की तीन सदस्यीय पीठ ने उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त करते हुए कहा था कि स्किन से स्किन जब तक टच नहीं होगा तब तक यौन अपराध नहीं माना जायेगा। मतलब किसी महिला को कपड़े के ऊपर से छूना अपराध नहीं माना जायेगा। ऐसे माहौल और ऐसे कानून बनाने वाले लोग भारत को गर्त में ले जा रहे हैं और भारत में बलात्कार जैसी घिनौने कृत्य को बढ़ावा दे रहे हैं।
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